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इन दिनों, अगर किसी तीन फिल्मों के बारे में सबसे अधिक चर्चा है तो वे हैं मूल रूप से तेलुगू में बनीं फिल्म आरआरआर और पुष्पा और मूल रूप से कन्नड़ में बनी फिल्म केजीएफ चैप्टर 2, हाल ही में इन तीन फिल्मों ने जबरदस्त तरीके से पूरे भारत में अपनी फैन फॉलोइंग बनाई है, कई ट्रेड एनैलिस्ट और समीक्षक उन कारणों का पता लगाने में भी जुटे हुए हैं कि आखिर इन फिल्मों की सफलता और क्रेज की क्या वजह हैं। नि: संदेह यश, अल्लू अर्जुन, रामचरण और जूनियर एनटीआर फिलहाल पैन इंडियन सबसे बड़े सुपरस्टार के रूप में उभर चुके हैं, अपनी फिल्मों के किरदारों की वजह से। ऐसे में मैंने भी इन तीनों फिल्मों को दोबारा देखा और मुझे कुछ कॉमन फैक्टर इन तीनों ही फिल्मों में नजर आये हैं और उन 5 फैक्टर्स को मैंने यहाँ शामिल करने की कोशिश की है, जो मेरी अपनी समझ से इन फिल्मों को आम लोगों से कनेक्ट कर पाने में सहायक साबित हो रही है। मुमकिन है कि ये कॉमन फैक्टर्स, कॉमन मैन को भी पसंद आये हों, मैंने बस एक कॉमन मैन के नजरिये से ही, इन तीनों फिल्मों को देखने की कोशिश की है।
मैंने गौर किया कि केजीएफ चैप्टर 2 की तो पूरी कहानी ही एक माँ को समर्पित है। एक बेटा, अपनी माँ की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए कोई भी कीमत चुका सकता है। एक गरीब लाचार माँ, जिस तरह से अपने बेटे को एक स्ट्रांग इंसान बनाती है और फिर वह गलियों की ख़ाक छानने वाला लड़का, एक बड़ा आदमी बनता है, यह देखना इस कहानी में दिलचस्प रहा है। वहीं पुष्पा फिल्म में भी गौर किया, तो मैंने महसूस किया कि पुष्पा की बचपन से ही बस एक ही बात की ख्वाहिश है कि लोग उसकी माँ को इज्जत की नजर से देखे, वह लगातार अपनी माँ के अपमान का बदला लेने की कोशिश करता रहता है, उसके सम्मान की रक्षा करना ही उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा कन्फ्लिक्ट होता है, तो वहीं आरआरआर में किसी व्यक्तिगत माँ की नहीं, बल्कि भारत माँ की रक्षा की कहानी यानी क्रांति की कहानी दिखाई गई है। ऐसे में इन तीनों ही फिल्मों में माँ और भारत माता के सम्मान की रक्षा की बात है। कई दौर से जहाँ, मांओं की भूमिका कॉमेडी या फिर बच्चे का हाल-चाल पूछे जाने तक सीमित रह गई थीं, इन फिल्मों ने सिनेमा की माँ को वापस ला दिया है। दीवार फिल्म का वह संवाद, मेरे पास माँ है… फिल्म से एक बार चरितार्थ हुआ।
दूसरी बात, जो मैंने महसूस की कि अब लोगों को अपना नायक, लग्जरी कार से निकलते हुए नहीं, बल्कि नीचे दबे-कुचले वर्ग, जिन्हें हमेशा सामंतवाद ने दबाया है, उनके बीच का नायक, नायक लगना महसूस हुआ है। केजीएफ चैप्टर 2 का रॉकी भाई अपने लोगों के लिए संघर्ष करता है और फिर नायक बनता है, पुष्पा भी कुछ ऐसा ही नायक है। आरआरआर में भी अंग्रेजों द्वारा लगातार भीम पर जुल्म किये जाते हैं, लेकिन वह और स्ट्रांग नायक बनता जाता है, तो दर्शक ऐसे किरदारों से रिलेट कर पा रहे हैं। दर्शकों को फ़िल्मी डायलॉग बोलते हुए उनके नायक पसंद आ रहे हैं, लेकिन उन डायलॉग में भी वह अपने लोगों, अपनी जमीन की बात करते नजर आ रहे हैं, यह बात भी उन्हें आकर्षित कर रही हैं।
मेरा मानना है, तो इन तीनों ही फिल्मों में लार्जर देन लाइफ अनुभव दिखाए गए हैं, लेकिन तीनों ही फिल्मों के किरदार अपनी-अपनी जमीन के अस्तित्व की बात करते हैं। आरआरआर का भीम आदिवासियों के जंगल और जमीन को बचाने के लिए, किसी भी हद तक जाने को तैयार है। केजीएफ की दुनिया में रॉकी भाई को अपने लोगों के लिए एक अलग दुनिया बनानी है और वह चाहता है कि सभी ताकतवर बने, वहीं पुष्पा में भी जंगल-जमीन और अपने लोगों के अस्तित्व की बात है।
मेरा मानना है कि सिनेमा का एक महत्वपूर्ण काम है कि किसी न किसी तरह से एंटरटेनमेंट मिले और कहानी एंगेजिंग हों। पिछले कुछ समय से मैंने गौर किया है कि सोशल मुद्दे वाली कहानियों को दर्शक औसत ही आंक रहे हैं, जबकि बॉलीवुड में एक से बढ़ कर एक फिल्में आ रही हैं, लेकिन वर्तमान दौर में शायद दर्शक, दो सालों तक कोविड के कारण घर में इस कदर बैठे हैं और ओटीटी दुनिया को उन्होंने इस कदर एक्सप्लोर कर लिया है कि अब वह सोशल मुद्दे की सीरियस नहीं, बल्कि एंटरटेनमेंट कहानियों को प्राथमिकता देना अधिक पसंद कर रहे हैं।
इन तीन फिल्मों के सिनेमेटिक अनुभव को भी नकारा नहीं जा सकता है। पुष्पा ने जिस तरह से चंदन की लकड़ी, जंगल, जमीन की बातों को दिखाते हुए एक सांग का पिक्चराइजेशन है, वह हाल के दौर के बेस्ट लुक में से एक है, वहीं इसके कमाल के एक्शन दृश्य हैं। वहीं आरआरआर के हर एक्शन दृश्यों को सिनेमेटिक अनुभव के साथ तैयार किया गया है और केजीएफ चैप्टर 2 ने भी लार्जर देन लाइफ दिखाने में कसर नहीं छोड़ी है, तो दर्शकों को यह सब पसंद आ रहा है, फिलहाल वह लग्जरी कार वाले लार्जर देन लाइफ किरदारों को देखने में कम रुचि लेते हुए नजर आ रहे हैं मुझे। इनके अलावा पारिवारिक इमोशन वाली फीलिंग भी देती हैं यह फिल्में।
वाकई मुझे ऐसा लगता है कि इनके अलावा और शायद ऐसे कई फैक्टर हो सकते हैं, जिनकी वजह से किसी न किसी वजह से इन फिल्मों के सुर, दर्शकों के साथ एकदम कदमताल कर रहे हैं और लगातार दर्शक इन्हें पसंद कर रहे हैं। सो, आने वाले समय में निर्देशक और फिल्मकारों को चाहिए कि वह आम जनता की नब्ज पकड़ने की कोशिश करें और उनको ध्यान में रख कर कहानियां कहने की कोशिश करें, जैसा कि इन तीन फिल्मों के निर्देशकों ने दर्शकों की नब्ज को पकड़ा है।
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